शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

2014 का सिनेमा

क्या किसी फ़िल्म का हिट या फ़्लॉप होना फिल्म के अच्छे या बुरे होने का प्रमाण है ? ख़ैर, साल 2014 में बहुत सी फ़िल्में आईं और गईं. लेकिन कुछ फ़िल्में दिल में जगह बना गई. ऐसी ही कुछ पसंदीदा फ़िल्में हैं, जो आपसे साझा करना चाहता हूं. आपके सुझाव और आलोचना का तहेदिल से स्वागत है...

1- क्वीन
2- पीके
3- हाइवे
4- रंगरसिया
5- फ़िल्मिस्तान
6- आंखों देखी
7- हैदर
8- हवा हवाई
9- हॉलिडे
10 - यंगिस्तान / मैरीकॉम





शनिवार, 27 अप्रैल 2013

आशिक़ से बड़ी आशिक़ी 


साल 1992. वो दौर जब देश में मंदिर-मस्जिद के लिए एक इंसान दूसरे इंसान के ख़ून का प्यासा था. उसी दौर में मैं प्रेम की पाठशाला में प्यार का पहला पाठ सीख रहा था.. हम दोनों का जन्म 1986-87 को दिल्ली के पंचशील पार्क में हुआ. उसकी मां मेरी मां के मायके टिहरी गढ़वाल के ग्राम पटुड़ी की रहने वाली थी.. उसका नाम था या है अनन्या नेगी. जिसे परी के नाम से जाना जाता था. वो मुझसे 2 महीने 4 दिन बड़ी थी. 

आसमान के नीचे, ज़मीन की गोद में, सूरज की रोशनी से, बहती हवाओं के साथ हमारा पालन-पोषण हुआ. आपस में दूध की बोतल की कब अदला-बदला हो जाती, पता भी नहीं चलता. हमारे बचपन के शुरुआती साल एक साथ बीते. साथ में खेलना, कूदना, दिनभर मस्ती, एक ही थाली में खाना. 


अब बात आई स्कूल में दाख़िले की. उसका नर्सरी में एडमिशन हुआ. लेकिन मुझे किसी दूसरे स्कूल में डालने की योजना बनाई जाने लगी. जिससे मेरे अंदर का विद्रोही जाग गया.. मैं स्कूल नहीं जाउंगा. जिस स्कूल में परी जाएगी. मैं वहीं जाउंगा. मेरी ज़िद के आगे मेरे घरवालों की एक न चली. क्योंकि उन्हें मेरी ज़िद और अड़ियल स्वभाव का अच्छे से अंदाज़ा था. एक बार जो मैंने फ़ैसला कर लिया, उसके बाद तो..... 


बच्चे अक्सर स्कूल जाने के लिए रोते हैं, लेकिन मैं कभी नहीं रोया. क्योंकि मेरी पाठशाला मेरे साथ थी. दोनों की मां पीछे-पीछे और हम दोनों आगे-आगे. उसकी छोटी सी उंगली मेरे नन्हे से हाथ में. घर से तो दोनों का टिफ़िन अलग-अलग आता. लेकिन लंच टाइम में उसका टिफ़िन मेरे पास. मेरा टिफ़िन उसके पास. 

स्कूल से जब छुट्टी होती, तो मां हमें लॉलीपॉप खिलाती. (लॉलीपॉप जिसे पूर्वी यूपी में लालीपाप और पश्चिमी यूपी में लोलीपोप कहते हैं) उसकी लॉलीपॉप का चॉकलेट फ़्लेवर, मेरा ऑरेंज. चॉकलेट का क्या है,, मुंह में डाला और घप्प से ग़ायब. लेकिन ऑरेंज तो साला पत्थर की तरह. अंत तक चूसते रहो. परी की लॉलीपॉप जैसे ही ख़त्म होती. वो मेरा छीन लेती. मैं चिल्लाता. मम्मी इसने मेरा छीन लिया. मुझे नया चाहिए. सारी दुकानें मैंने पहले से ही रटी हुई थी. मां को हाथ पकड़ के खींचता और फिर नई लॉलीपॉप. लेकिन इस बार चॉकलेट फ़्लेवर. लॉलीपॉप लेने के बाद फिर उसके क़रीब जाता. लेकिन नई वाली उसको देकर अपनी पुरानी ऑरेंज वाली वापस ले लेता. अब ताज्जुब की बात तो ये कि इस बार का एहसास पहले से जुदा होता. इसमें ऑरेंज के साथ-साथ चॉकलेट की भी मिठास होती... अब फिर से अपनी-अपनी लॉलीपॉप के साथ हम आगे का सफ़र तय करते और उसकी प्यारी सी उंगली दोबारा मेरे नाज़ुक हाथों में आ जाती. यह सिलसिला क़रीब 2 साल तक बदस्तूर जारी रहा... 

तब एक बात समझ में आ गई दूसरे को जीतने के लिए ख़ुद को हारना ज़रूरी है... 


स्कूल से घर लौटने के बाद दोनों सो जाते. शाम को जो भी पहले उठता, वो दूसरे के घर में धावा मारता. फिर नींद से जगाने के लिए माचिस की तिल्ली या रूई को नुकीला करके नाक या कान में घुसाता. हंसने की ज़रूरत नहीं है. दरअसल शरारत हम दोनों के स्वभाव में थी. शाम को सूरज चाचू की विदाई के बाद हम सारे बच्चों की ब्रिगेड छुपनछुपाई के लिए कमर कस लेते. परी मुझसे कहती तुम जहां भी छुपोगे. मुझे भी साथ में रखना. क्योंकि मुझे ढूंढना नहीं, छुपना पसंद है. अच्छा ठीक है. तुम बस मेरे साथ रहना. 5 मंज़िला मकान का फैलाव बहुत ज़्यादा था. छुपनछुपाई खेलने में हुई एक घटना हमेशा याद आती है. छुपते-छुपते हम दोनों छत पर पहुंचे. क़रीब 1 घंटे तक छत पर ही छुपे रहे. वो बोली मुझे भूख लग रही है. कुछ खाने को लाओ. नहीं अभी नहीं. हम पकड़े जाएंगे. मैं नहीं, मैं नहीं, मैं नहीं... मुझे अभी खाना है. अच्छा ठीक है. तुम बस अपना मुंह बंद रखो.


छत में 6 से 7 टंकी थी. उनमें 200 लीटर की सबसे छोटी टंकी, जो ख़ाली थी. मैंने उसे छिपा दिया. उसके बाद मैं मेन रास्ते से नहीं,, पीछे के रास्ते से नीचे उतरा. घर से पारलेजी का बिस्किट ग़ायब किया. ऊपर जा ही रहा था कि देखा किसी ने पानी की मोटर ऑन कर दी. मैं छत की तरफ़ दौड़ा. बीच में एक लड़का मुझ पर ज़ोर से चिल्लाया आइसपाइस.. मैं उसे धक्का देते हुए आगे बढ़ा. मेरे पीछे-पीछे बंदरों की पूरी सेना. पूरे मकान में हल्ला मच गया. छत में पहुंचते ही देखा परी रो रही थी. टंकी से बाहर नहीं निकल पा रही थी. मैंने अपने दोस्त के साथ पास में पड़ी 10-12 ईंटें टंकी में डाली और बमुश्किल उसे बाहर निकाला. वो पूरी तरह भीग गई थी. उसके आंसू रुक नहीं रहे थे. मैं भी इससे पहले आज तक इतना नहीं घबराया था. मैंने उसे बाहों में भर लिया. परी मैं आ गया हूं ना. अब मत रोओ. पारलेजी का बिस्किट निकालकर उसके हाथ में रख दिया. वो बोली. एक बात बताऊं. सामने से आंटी झाड़ू लेकर आ रही है. भागो...... परी मेरी मां से कह रही थी आंटी बॉबी को मत मारो न... 


साल 1995. भारत ने सचिन की कप्तानी में ऑस्ट्रेलिया को हराकर टाइटन कप पर क़ब्ज़ा कर लिया. वो रात जश्न की थी. आसमां में छूटते रॉकेट, ज़मीन पर अनार और हाथों में फुलझड़ी.. हम दोनों मस्ती में सराबोर थे. तभी मुझे पता चला. सुर्योदय होते ही परी की फ़ैमिली यहां से हमेशा के लिए हॉज़ ख़ास चली जाएगी. अब वो जश्न तमाशा सा लगने लगा. मैं छत पर गया और बिना आवाज़ किए देर तक रोया रहा... 


अब स्कूल जाने की इच्छा नहीं होती थी. गुमसुम सा रहने लगा था. नींद चुभती थी और खाना काटता था. छुपनछुपाई खेले भी ज़माना हो गया था. देखते ही देखते टायफ़ायड हो गया. 20 दिन तक बेड पर पड़ा रहा. सोचता था ठीक ही हुआ, उस बेगाने स्कूल से तो राहत मिली...


शाम का वक़्त था. आंख खोली तो परी मेरे सामने थी. उसके हाथ में चॉकलेट और 2 लॉलीपॉपउसको देखते ही पता नहीं कब मेरी आंखों से दरिया छलछला उठा. आंसू पोंछते ही उसने मुझे गले से लगा लिया. परी मुझे छोड़के मत जाओ. बॉबी मैं तुम्हें कभी छोड़के नहीं जाउंगी... रोते-रोते मेरी आंख लग गई. जब मैं उठा तो परी जा चुकी थी. मेरी आंखें फिर से भीग गई. अपने सिरहाने देखा तो चॉकलेट और लॉलीपॉप मुझे मेरी परी की याद दिला रही थी..


 उस दर्द से उबारने में मेरे अज़ीज़ दोस्त अश्वनी चौहान (राजस्थान) और मेरी फ़ेवरेट आंटी आयशा ख़ानम का बहुत बड़ा हाथ रहा. दरअसल अश्वनी मेरे बचपन का सबसे गहरा दोस्त था. नर्सरी से 8वीं तक हम साथ पढ़े. वो मेरा राइट हैंड था. मुझ पर उठी उंगली आगे कभी उठ नहीं पाती थी.. उसके पास उस ज़माने की बहुत महंगी साइकिल थी. जो भी उस साइकिल को देखता, बस देखता ही रह जाता.. उसकी साइकिल के जलवे थे. हमने साइकिल का नाम बबली रख दिया. बबली पर सिर्फ़ 3 लोगों का हक़ था. मेरा, अश्वनी का और अश्वनी की गर्लफ़्रैंड साक्षी का.. चौंक गए न कि अश्वनी की भी गर्लफ़्रैंड थी.. और सुनो हम तीनों उस वक़्त 9 साल के थे. साक्षी मालवीय नगर में रहती थी. लेकिन पढ़ते हम साथ में ही थे.. 


मां मुझे महीने-महीने परी के घर ले जाती. क्योंकि मां मेरा एहसास जानती थी. आख़िर वो मां जो थी.. मां!! सृष्टि की सबसे ख़ूबसूरत रचना’…


हालांकि धीरे-धीरे हमारे मिलने का फ़ासला महीने से 2 महीने होता चला गया.. लेकिन मेरे घर से उसके घर का रास्ता मेरी आंखों में क़ैद था. अपनी समस्या मैंने अश्वनी को बताई. अश्वनी जिसका दिल उससे भी बड़ा था. भरोसा देते हुए कहा जब तक तेरा भाई ज़िंदा है, दुनिया की कोई ताक़त तुझे उससे मिलने से नहीं रोक सकती..

छुट्टी का दिन था. शाम 4 बजे. अश्वनी ने अपनी बबली निकाली. मुझे आगे बिठाया. हम निकल पड़े मंज़िल की तरफ़. अश्वनी ने मुझे परी के घर के ठीक सामने के पार्क में छोड़ दिया. जिसे डियर पार्क के नाम से जाना जाता है..

परी ने मुझे देखा और दौड़ी चली आई. अश्वनी हम दोनों को अकेला छोड़ते हुए साक्षी से मिलने मालवीय नगर निकल पड़ा.. जाते-जाते कह गया बेटा 7 बजे तैयार रहियो, लेने आउंगा... पार्क में बहुत सारे झूले थे. परी ने मेरा सारे झूलों से दीदार कराया. 7 कब बजे पता ही नहीं चला.. 


मैं और अश्वनी बबली के साथ अक्सर वहां जाने लगे.. मैं और परी पार्क में खेलते रहते..  उसकी मां को भी पता था मैं उससे मिलने आता हूं.. एक रोज़ अचानक तेज़ बारिश होने लगी. मैं बड़े से पेड़ के नीचे छिप गया. लेकिन वो झूला झूलती रही. वो चिल्लायी. इधर आओ. मेरे पास. नहीं मैं नहीं आउंगा. कपड़े भीग जाएंगे तो मां मारेगी. मुझे नहीं पता तुम मेरे पास आओ. कपड़े भीग जाएंगे तो मेरे पहन लेना. अगर तुम नहीं आये तो आज से तुम्हारी मेरी कुट्टा.. 


कुछ भी हो मैं उसका दिल नहीं दुखा सकता था. अरे ओ परी. देख तेरे कपड़े तो मैं नहीं पहनूंगा. लेकिन मुझे अपनी मां की मार मंज़ूर है. वो हंसते हुए खड़ी हुई और अपने दोनों हाथ मेरे सामने  कर दिए. वो बारिश तो बाद में रुक गई, लेकिन मुझे हमेशा के लिए भिगा गई..


 “ बारिशों में बेधड़क तेरे नाचने से

 बात-बात पे बेवजह तेरे रूठने से
 छोटी-छोटी तेरी बचकानी बदमाशियों से
 मोहब्बत करूंगा मैं
 जब तक है जान, जब तक है जान...

जब भी मैं परी से मिलकर आता, तो अश्वनी के बाद आयशा खाला को बताता. ज़रूरत पड़ने पर वो ज़बर्दस्ती मेरी जेब में पैसे रख देती. नहीं मुझे पैसे नहीं चाहिए. बाबू ले लो और मेरी तरफ़ से परी को आइसक्रीम खिला देना.. 

साल 1998. सचिन ने सेमीफ़ाइनल और फ़ाइनल में ऑस्ट्रेलिया को धोकर कोका कोला कप भारत के नाम कर दिया. मैंने और अश्वनी ने उस रात पूरे मकान में जमकर हंगामा काटा. बग़ल में रह रहे ताऊ जी के चार्म्स के पैकेट से 1 सिगरेट निकाली. और छत में धुएं से बादल बनाने लगे. मैं नीचे आया तो पता चला. परी आगे की पढ़ाई के लिए दून स्कूल जा रही है. पूरी रात मैं सो नहीं पाया. अगले दिन जब उससे मिलने पहुंचा तो वो देहरादून के लिए निकल गई थी.. 


फिर क्या था टायफ़ायड ने मुझे दोबारा अपनी चपेट में ले लिया.. उस दिन मैंने एक बात महसूस की. इंसान की सभी बीमारियां दिल से जुड़ी हुई हैं. दिल कमज़ोर होते ही मन नियंत्रण से बाहर हो जाता है, जिसके बाद शरीर खोखला पड़ना स्वाभाविक है.. 


दून की दुनिया में क़दम रखने के बाद वो कब दिल्ली आती और कब चली जाती, इसका मुझे पता ही नहीं चलता. न ही उसके बाद फिर कभी उससे मुलाक़ात हुई.. 1997 में आयशा आंटी मुझे छोड़कर पहले ही जा चुकी थी. 1999 के क्रिकेट वर्ल्ड कप के बाद हम भी पंचशील पार्क से कहीं और चले गए.. सबसे मुश्किल रहा अश्विनी से आख़िरी मुलाक़ात करना. उसके प्यार का मैं ताउम्र क़र्ज़दार रहूंगा. लेकिन दुख की बात ये है कि कम से कम इस जन्म में तो मैं उसकी मोहब्बत का क़र्ज़ नहीं चुका पाउंगा.. क्योंकि मेरे जाने के बाद कुछ सालों के अंदर ही अश्विनी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.. उसकी और मेरी गहरी दोस्ती की खुलकर चर्चा कभी और करूंगा.. आज इतना ही..






“ Whatever You are

 I have Loved you unconditionally
 And I will Love you to the very end
 Without expecting anything from your side”…

मंगलवार, 19 जून 2012


'फिर से उड़ चला'
कमरे के ऊपरी छोर पर दो प्रेमी कबूतर कई दिनों से आशियां बनाने की जुगत में थे.. ऑफिस से आता, तो देखता कि तेज़ हवा की चपेट में उनका घरौंदा टूटकर मेरे बिस्तर पर पड़ा मिलता.. 4-5 दिनों तक यही सिलसिला बदस्तूर ज़ारी रहा.. मैं मूर्ख कुछ कर ही न पाता.. एक रोज़, ध्यान की अवस्था में अंतस से आवाज़ आई दिमाग की बत्ती जलाओ, अपनी अक्ल लगाओ.. जो हो सकता था, हो गया.. उनका घर बस गया.. गज़ब तो तब हुआ, जब रात 3 बजे के गहरे सन्नाटे में किताब के साथ ध्यान में लीन था.. तभी एक आवाज़ अंदर तक उतरती चली गई.. ऊ..ऊ...ऊ...ऊ... आंखें खुली तो उनमें से एक प्रेमी सामने था.. उसकी भाषा तो ऊपर से निकल गई,, मगर भाव दिल में दस्तक दे गया.. वैसे भी सत्य शब्दों में नहीं शून्य में है.. ख़ैर उनका घर बस गया.. दो प्यारे से बच्चे हो गए.. मेरे आसपास उनकी मां ने उन्हें पंख फैलाना सिखाया.. और आख़िरकार उनका पूरा परिवार मुझे मीठी यादें सौंपकर नए आशियां की तलाश में निकल पड़ा.. ईश्वर के हर स्वरूप को नमन...
स्वागतम 2012....
दोस्तों आज से एक नई शुरूआत...
उम्मीद करता हूं कि मिलेगा आप सभी का साथ...
हल्ला बोल...

सोमवार, 3 जनवरी 2011

"नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें "
जो अभी है उसी को जी ले, जो जिया वो जी लिया ....
"आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें"
जो अभी है उसी को जी ले, जो जिया वो जी लिया ..........

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

मेरी शुरुआत

आज से मेरे प्रिय मित्रों मैं भी आपके साथ हूँ हम और आप मिलकर एक दुसरे के प्रयासों का अवलोकन करेंगें आशा है की आपलोग मेरा साथ देंगे
हमारी तरफ से सबो को शुभकामनाएं